saanjh aai
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अम्बर पे चाँद बड़ा खुश था
बोला तू रोज सपने बुनती है !
स्वप्न तो बुलबुले होतें हैं ,
लहरों का छलावा आये और गये !
मैं सदियों से देख रहा हूँ
इंसान की ये फितरत !
सुनो चाँद !!
खुद को निहारो
रोज रूप बदलते हो
हम वैष्णव हैं
उस विष्णु की संतान
जिसमे कोटि चन्द्र समाये हैं
क्या तुम नहीं जानते ?
हम पुरुषार्थ से स्वप्न को गलाकर
अपने घर की नीव भरतें हैं
स्वप्न को सच बनातें हैं
shakuntla मिश्रा –
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