saanjh aai
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देखने चली एक दिन साँझ ,
विभु की रचना का सृंगार !
थम गए नयन क्षितिज को देख
दिखा गुम्फित दिनकर एक और !
एक पल भूल गई संसार ,
नहाईं सुधा वृष्टि आपूर !
भेद कर सिन्दूरी आकाश
छिप गया नभ में कज्जल बीच !
आ गई रजनी खोले केश ,
देखने आई थी एक साँझ
शकुन्तला मिश्रा -देखने चली
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