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हम सब भारतवासी हर दीपावली पर्व पर प्रकाश की चाह में दीप जलातें हैं
,घी -तेल -सुगंघ के साथ पर अँधेरा बढ़ता ही जा रहा है ,क्या दीप कम या
अन्धकार बलवान है ? पूजा -पाठ ,विधि -विधान हमें प्रेम नहीं सीखा पा रहे हैं
क्यों की हमने अपने मन का दीपक तो जलाया ही नहीं है !
हम एक ऐसा दीप जलाएं इस दीपावली पर जो हमारे मन को प्रकाशित करे _
मुझमे आलोक भरा
दूर होती है तमिस्रा !
मेरा नाम है -दीवा !!
मेरा मन है आज अनमना
मैं चाहूँ कर्तव्य निभाना –
प्रथम जलूं -वीरो के स्थल ,
फिर चाहूँ- सीमा पर जलना !
जहां जवान हैं -देश के प्रहरी
मैं चाहूँ हर तिमिर जलाना
छुपा अँधेरा जहाँ कही हो
कोना -कोना जगे ,प्रखर हो
ऐसे मुझे जलाना !
मुझको हैं तिमिर भगाना !!
परम्परा का दीप जलूं मैं
हर मानव की ख़ुशी बनु मैं
हर कुटिया का दिवस बनु मैं
ऐसे मुझे मानना !
मुझको हैं तिमिर भगाना !!
हर घर राजा राम समाये
पूरा देश अवध बन जाए
कोई दुःख न कही रह जाये
राम राज्य हर घर में आये
ये हैं मेरी कामना !
मुझको हैं तिमिर भगाना !!
मैं भी जलूं दीपमाला में
आपने राघव के आवन में
आलोकित हो उनके पथ में
नित्य जलूं नव आस्थान्जलि में
ऐसे मुझे चढ़ाना !
मुझको हैं तिमिर भगाना !!
सुख में ,दुःख में निर्भय विचरूँ
नयन -नयन पावन बन उतरूँ
प्रिय -जीवन मन भवन होकर
अन्धकार हैं शत्रु धरा पर
मुझसे ख़ुशी बढ़ाना !
मुझको हैं तिमिर भगाना !!
शकुंतला मिश्रा -एक दिया ऐसा जलाएं
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