saanjh aai
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बहुत दिनों के बाद आई हो !
किस आलोक से प्राण लाइ हो !
कहाँ तुम्हारा सहचर !
अनंत में फिरती हो ,
मरण को भूल कर !
खुली हवा ,बाग़ ,फूलों पर
सुबह- शाम, घर ,आँगन -बाहर !
इंसान की भृकुटी से निडर !
मुक्ताकाश ,उन्नत उडान पर !
तू मरने को है राजी ,
पर बंधन नहीं जरा भी !
हरदम ताज़ी लय पर ,
गाती तिंयु-तिंयु के स्वर भी !
वही शहर है ,वही रास्ता ,वही मकां भी !
तो सुन !ठहर कुछ पल हमारे घर भी !
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